Monday, July 22, 2013

"गुरु पूर्णिमा"........ आदिल रशीद aadil rasheed

खुद से चल कर ये कहाँ तर्ज़े सुखन आया है 
पाँव दाबे हैं बुजुर्गों के तो फन आया है (मुनव्वर राना)

"गुरु पूर्णिमा"  

बहुत से लोगों के लिए ये एक नया नाम होगा।
बहुत से लोगों ने इसे सुना होगा लेकिन इसे समझा नहीं होगा।
और बहुत से लोगों के लिए ये एक अज़ीम दिन है ये दिन है अपने गुरु के नाम का ज़िक्र करने और अपने अकीदत अपनी निष्ठां का इज़हार करने का 
हर इंसान का पहला गुरु उसकी माँ होती सो मेरी भी वही है. हर आदमी का दूसरा गुरु उसका पिता होता है सो मेरे वालिद (पिताजी) मरहूम (स्व.) अब्दुल रशीद मेरे दुसरे गुरु हैं.  उनसे मैं ने जीवन के उतार चढ़ाव के बारे में तो सीखा ही सीखा अरूज़ (फने शायरी) की भी बारीकियां सीखी वो हमेशा कहा करते थे के
 " अरूज़ इतना सीखो के अपना काम चला सको दोस्तों की मदद कर सको लेकिन अरूज़ उतना मत सीखो के अपने दोस्तों को दुश्मन बना लो "

मेरे अन्य गुरु जो रहे जिन्होंने मुझे कलम पकड़ना सिखाया अक्षर ज्ञान दिया क ख ग घ सिखाया मेरे लिए वह सभी अज़ीम थे, हैं, और रहेंगे।

स्कूल से कोलेज तक उन तमाम गुरुओं मे से एक श्री नंदन जी सुना है कालागढ़ से आकर आजकल गाज़ियाबाद में कहीं रहने लगे हैं उनकी तलाश जारी है अगर कोई इस में मेरी मदद कर सके तो मैं आभारी रहूँगा।
शायरी में पिताजी स्व.अब्दुल रशीद जो आलोचक थे के बाद मेरे प्रथम गुरु मरहूम महबूब हसन खां नय्यर तिलहरी रहे जो एतबारुल मुल्क हजरते @दिल शाहजहांपुरी के शागिर्द थे और दिल शाहजहांपुरी महान शायर "अमीर मीनाई" के शागिर्द थे.

मुझे हमेशा ही इस बात पर फख्र रहा के दिल शाहजहांपुरी से होता हुआ मेरा रिश्ता अमीर मीनाई तक जाता है और मुझे अमीर मीनाई का परपोता होने का शरफ हासिल है. 

महबूब हसन खान नय्यर ने ही अपने जीते जी मुझे मेरे तिलहर के ही दूसरे उस्ताद शायर स्व. ताहिर तिलहरी का शागिर्द बनवा दिया था (इस का पूरा विवरण मेरे द्वारा संकलित मेरे गुरु के ग़ज़ल संग्रह " आख़री परवाज़ " में देखा जा सकता है जिसमे मैं ने अपने दोनों गुरुओं के विषय में अपने लेख "ये तुम्हारा ही करम है दूर तक फैला हूँ मैं " में लिखा है ) 
मुझे अपने शायरी के दोनों उस्तादों पहले उस्ताद महबूब हसन खान नय्यर तिलहरी और दुसरे उस्ताद ताहिर तिलहरी पर सदा फख्र रहा है और रहेगा आज के दिन इन सबको मैं अपना सलाम पेश करता हूँ मैं आज जो कुछ भी बन पाया हूँ  ये सब मेरे गुरुओं की और उस्तादों की मेहनतों का और मुहब्बतों का नतीजा है. 

नोट :- सिखाया तो मुझे मेरे दोस्तों और विरोधियों ने भी धोके देकर बहुत कुछ मैं उनका आभारी तो हूँ और ज़िंदगी भर शुक्रगुजार भी रहूँगा लेकिन उन को उस्ताद या गुरु लिखकर "गुरु" जैसे अज़ीम और महान लफ्ज़ की बेइज्ज़ती नहीं कर सकता ……आदिल रशीद 

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