मुझे मालूम था इसको तो तुम पहचान ही लोगे...........
एक तस्वीर की कहानी...............आदिल रशीद /aadil rasheed
मेरे बहुत से फेसबुक के दोस्तों ने मुझ से बहुत बार ये कहा के आपने प्रोफाइल में बहुत पुरानी(1986) की B/W तस्वीर क्यूँ लगा रखी है और उसके नीचे C-824 वर्क चार्ज कालोनी कालागढ़ 1986 भी लिख रखा है
मैं ने कहा के इस के पीछे एक कहानी है (और मेरे हर शेर की एक कहानी होती है )
मेरा एक बदनाम शेर भी है
जो गुज़रती है बस वो कहता हूँ
वर्ना मेरा ग़ज़ल से क्या रिश्ता
जो भी पूछता के इसके पीछे क्या कहानी है तो मैं मुस्करा कर टाल जाता
और जियादा जिद करने पर कह देता के वक़्त आने पर बताऊंगा
बहुत से मित्र जो के मेरे बेहद करीब ( रग ए जाँ से भी करीब) हैं वो इसकी कहानी जानते है जिनमे कुछ पुरुष मित्र है तो कुछ महिला मित्र भी है जिन्होंने ने मेरा अनुसरण करते हुए अपनी अपनी वाल पर अपनी पुरानी तस्वीरें लगा रखी है
आज मैं इस को सब के लिए लिख रहा हूँ .
बात 1986 की है एक दिन अखबार में एक विज्ञापन देखा के एक फिल्म में कलाकारों का चयन हो रहा है २ रूपये जी हाँ सिर्फ दो रूपये (१९८६ में २ रूपये बड़ी बात थी क्युनके उस वक्त पोस्ट कार्ड १० या १५ पैसे का था ) के डाक टिकट भेज कर फार्म मंगवा लें
मैं ने २ रूपये के डाक टिकट भेज कर फार्म मँगा लिया फार्म भर कर भेजा तो यही तस्वीर जो मेरी फेसबुक की प्रोफाइल में है साथ में भेज दी
तीन महीने बाद एक पोस्टकार्ड मिला आपका चयन मुख्य हीरो के रूप में हो गया है आप आ जाइये मेरी तो ख़ुशी का कोई ओर छोर न रहा एक दोस्त था प्रदीप चतुर्वेदी जिसे हम सब अमर उजाला कहते थे कोई बात पूरे कालागढ़ में फैलानी हो तो अखबार द्वारा तो वक़्त और पैसा दोनों लगते थे उसे बता दो फ्री में पूरे कालागढ़ में बात फ़ैल जाती थी (टी. वी उस समय हर घर मे था नहीं एक साधन था विविध भारती )बस क्या था उसे राज़ की बात बताते ही जिसे देखो वो सी-824 की तरफ भागा चला आ रहा था मुबारकबाद देने अम्मी अब्बू सबको चाय नाश्ता कराते और रुखसत करदेते.
धीरे धीरे वो दिन भी आ गया जब मुझे जाना था
एक बहुत बड़ा हुजूम(जन सैलाब) मुझे विदा करने बस अड्डे तक आया मेरा चेहरा फूलों के हारों में कही छुप गया था मैं उसको नहीं देख पा रहा था जिसने मेरे साथ कभी पैसे बोये थे क्युनके हम ने सुना था गेहूं बोने पर गेंहू उगते है यानि जो बोया जाए तो बही हु ब हूँ निकलता है तो अगर पैसे बो दिए जाएँ तो पैसे ही उगेंगे
आज तो ये याद करके भी आँखें भर आती है और बहुत सी रेजगारी गालों पर गिरने लगती है (खैर जाने दो )
बस चली सफ़र पूरा कर के मैं वहां पहुंचा उस दफ्तर में कुछ और भी लड़कियां लड़के थे शायद सबको बुलाया गया था
मुझे अन्दर बुलाया गया मैं अन्दर दाखिल हुआ सामने बैठा उन्होंने मुझे हैरत से देखा कहा ये तस्वीर आपकी है मैं ने कहा जी
उन्होंने एक दुसरे की तरफ देखा और कुछ खुसर फुसर की एक महिला जो बहुत ही सुन्दर थी बिलकुल मेरी माँ के जैसी गोरी गोरी चौड़ा माथा बड़ी बड़ी आँखें ममता का अथाह सागर और अम्मी की तरह भावुक भी क्युनके जो उसने कहा उसको वो बात कहने में बहुत तकलीफ हो रही थी उसका चेहरा उसकी जुबां का साथ नहीं दे रहा था
उसने बड़ी मुश्किल से कहा" देखिये हुआ यूँ के हम आपकी तस्वीर और चेहरे से धोका खा गए आपकी लम्बाई बहुत कम है
मैं तो जैसे पहले ही भांप गया था (मेरी लम्बाई 5 फुट 1 इंच है )बस उसके कहने की प्रतीक्षा में था उनको नमस्ते की और चला आया मुझे चयन न होने का कोई दुःख नहीं था दुःख था तो ये के कितना उपहास उड़ेगा मेरा
फिर मैं ने उसी दिन दो पोस्ट कार्ड लिखे एक घर पर और एक अमर उजाला को अब अमर उजाला को क्यूँ लिखा ये आप जानते ही हैं
और उसके ८ दिन बाद मैं कालागढ़ वापस आ गया मैं ने अपनी ज़िन्दगी का पहला कड़वा अनुभव किया के मुझे छोड़ने तो जन सैलाब आया था लेकिन लेने सिर्फ तीन आये थे शन्नू अमर उजाला और वो किसान जिसने मेरे साथ सिक्कों की बुआई की थी
उसके बाद तो मेरा घर से निकलना फुटवाल खेलना सब दूभर हो गया सभी दोस्त उपहास उड़ाते जो मिलता लम्बाई बढ़ने के नुस्खे बताता किसी ने कहा दूध केला खाया कर किसी ने कहा लटका कर किसी ने करेले में मेथी उबाल कर (दोनों ही कितनी कडवी चीज़े है )पीने की सलाह दी वक़्त ने धीरे धीरे सारे ज़ख्म भर दिए
वक़्त पंख लगा कर उड़ता रहा और हम सब धीरे एक दुसरे से जुदा होते गए शायद सरकारी परियोजनाओ में काम करने वालों का यही नसीब भी है के .इस दिल के टुकड़े हज़ार हुए कोई यहाँ गिरा कोई ...........
और वो बच्चे जिनके अभिवावक सरकारी कर्मचारी होते हैं और उनके अभिवावकों के तवादले होते रहते वो दोस्तों के बिछड़ने (उस उम्र की दोस्ती मेरी नज़र में बहत अहम् है ) का गम झेलते रहते हैं और जीवन में कभी दोबारा नहीं मिलते
लेकिन जब मैं ने फेसबुक पर खाता खोला तो मेरे दिमाग में वही चेहरे थे मुझे वक़्त ने कितना बदल दिया वो भी बदल गए होंगे लेकिन अगर आज भी हम एक दुसरे के पास से गुज़र जाएँ तो न मैं ही पहचान पाउँगा न ही उन में से कोई मुझे पहचान पायेगा (और फिर अब मैं वो चाँद भी नहीं रहा अब तो मैं आदिल रशीद हूँ)लेकिन अगर उसवक्त के मेरे किसी दोस्त सहपाठी की तस्वीर मुझे दिखाई जाए तो मैं भी पहचान लूँगा और वो भी क्युनके हमारे जेहन पर एक तस्वीर बनी होती है जिसको हम ने आखरी बार जैसा देखा होता है वो हमारे जेहन पर वैसा ही अंकित होता है जब हम उसको दोबारा देखते है तब वो तस्वीर हट कर नयी तस्वीर उसकी जगह लेती है. इस विषय पर मेरा एक शेर है
वो जब भी ख्वाब मे आये तो रत्ती भर नहीं बदले
ख्यालों मे बसे चेहरे कभी बूढ़े नहीं होते
बचपन पर मेरी एक पोस्ट और है उसके लिए लिंक ये है जो मेरे ब्लॉग पर है
http://aadil-rasheed-hindi.blogspot.com/2010/11/kalagarh-ki-dhanterasaadil-rasheed.html
मैं जानता था के ये तस्वीर ज़रूर नज़र से गुजरेगी और जो मुझे आदिल रशीद के नाम से नहीं चाँद (जो मेरा घर का नाम है ) के नाम से पहचानते हैं वो इस तवीर को पहचान लेंगे और सारे न सही एक दो भी अगर मिल जाएँ तो भी बहुत बड़ी बात होगी
और खुदा का करम है के आज बहुत से लोग मुझे इस तस्वीर की वजह से मिल गए
मैं चेहरे को नहीं बूढी निशानी लेके फिरता था
मुझे मालूम था इस को तो तुम पहचान ही लोगे
आदिल रशीद
ऐसे ही बचपन के साथियों के लिए मेरे करम फरमा मरहूम अहमद कमाल परवाज़ी ने कहा था
जो खो गया था कभी ज़िन्दगी के मेले मे
कभी कभी उसे आंसू निकल के देखते हैं
ऐसे ही दोस्तों के लिए अहमद फ़राज़ ने कहा
ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे
हमसफ़र चाहिए हुजूम नहीं
इक मुसाफिर भी काफिला है मुझे
तो हाज़िर हैं वो तस्वीर जो अभी तक मेरी फेसबुक की प्रोफाइल में थी.
मेरे बहुत से फेसबुक के दोस्तों ने मुझ से बहुत बार ये कहा के आपने प्रोफाइल में बहुत पुरानी(1986) की B/W तस्वीर क्यूँ लगा रखी है और उसके नीचे C-824 वर्क चार्ज कालोनी कालागढ़ 1986 भी लिख रखा है
मैं ने कहा के इस के पीछे एक कहानी है (और मेरे हर शेर की एक कहानी होती है )
मेरा एक बदनाम शेर भी है
जो गुज़रती है बस वो कहता हूँ
वर्ना मेरा ग़ज़ल से क्या रिश्ता
जो भी पूछता के इसके पीछे क्या कहानी है तो मैं मुस्करा कर टाल जाता
और जियादा जिद करने पर कह देता के वक़्त आने पर बताऊंगा
बहुत से मित्र जो के मेरे बेहद करीब ( रग ए जाँ से भी करीब) हैं वो इसकी कहानी जानते है जिनमे कुछ पुरुष मित्र है तो कुछ महिला मित्र भी है जिन्होंने ने मेरा अनुसरण करते हुए अपनी अपनी वाल पर अपनी पुरानी तस्वीरें लगा रखी है
आज मैं इस को सब के लिए लिख रहा हूँ .
बात 1986 की है एक दिन अखबार में एक विज्ञापन देखा के एक फिल्म में कलाकारों का चयन हो रहा है २ रूपये जी हाँ सिर्फ दो रूपये (१९८६ में २ रूपये बड़ी बात थी क्युनके उस वक्त पोस्ट कार्ड १० या १५ पैसे का था ) के डाक टिकट भेज कर फार्म मंगवा लें
मैं ने २ रूपये के डाक टिकट भेज कर फार्म मँगा लिया फार्म भर कर भेजा तो यही तस्वीर जो मेरी फेसबुक की प्रोफाइल में है साथ में भेज दी
तीन महीने बाद एक पोस्टकार्ड मिला आपका चयन मुख्य हीरो के रूप में हो गया है आप आ जाइये मेरी तो ख़ुशी का कोई ओर छोर न रहा एक दोस्त था प्रदीप चतुर्वेदी जिसे हम सब अमर उजाला कहते थे कोई बात पूरे कालागढ़ में फैलानी हो तो अखबार द्वारा तो वक़्त और पैसा दोनों लगते थे उसे बता दो फ्री में पूरे कालागढ़ में बात फ़ैल जाती थी (टी. वी उस समय हर घर मे था नहीं एक साधन था विविध भारती )बस क्या था उसे राज़ की बात बताते ही जिसे देखो वो सी-824 की तरफ भागा चला आ रहा था मुबारकबाद देने अम्मी अब्बू सबको चाय नाश्ता कराते और रुखसत करदेते.
धीरे धीरे वो दिन भी आ गया जब मुझे जाना था
एक बहुत बड़ा हुजूम(जन सैलाब) मुझे विदा करने बस अड्डे तक आया मेरा चेहरा फूलों के हारों में कही छुप गया था मैं उसको नहीं देख पा रहा था जिसने मेरे साथ कभी पैसे बोये थे क्युनके हम ने सुना था गेहूं बोने पर गेंहू उगते है यानि जो बोया जाए तो बही हु ब हूँ निकलता है तो अगर पैसे बो दिए जाएँ तो पैसे ही उगेंगे
आज तो ये याद करके भी आँखें भर आती है और बहुत सी रेजगारी गालों पर गिरने लगती है (खैर जाने दो )
बस चली सफ़र पूरा कर के मैं वहां पहुंचा उस दफ्तर में कुछ और भी लड़कियां लड़के थे शायद सबको बुलाया गया था
मुझे अन्दर बुलाया गया मैं अन्दर दाखिल हुआ सामने बैठा उन्होंने मुझे हैरत से देखा कहा ये तस्वीर आपकी है मैं ने कहा जी
उन्होंने एक दुसरे की तरफ देखा और कुछ खुसर फुसर की एक महिला जो बहुत ही सुन्दर थी बिलकुल मेरी माँ के जैसी गोरी गोरी चौड़ा माथा बड़ी बड़ी आँखें ममता का अथाह सागर और अम्मी की तरह भावुक भी क्युनके जो उसने कहा उसको वो बात कहने में बहुत तकलीफ हो रही थी उसका चेहरा उसकी जुबां का साथ नहीं दे रहा था
उसने बड़ी मुश्किल से कहा" देखिये हुआ यूँ के हम आपकी तस्वीर और चेहरे से धोका खा गए आपकी लम्बाई बहुत कम है
मैं तो जैसे पहले ही भांप गया था (मेरी लम्बाई 5 फुट 1 इंच है )बस उसके कहने की प्रतीक्षा में था उनको नमस्ते की और चला आया मुझे चयन न होने का कोई दुःख नहीं था दुःख था तो ये के कितना उपहास उड़ेगा मेरा
फिर मैं ने उसी दिन दो पोस्ट कार्ड लिखे एक घर पर और एक अमर उजाला को अब अमर उजाला को क्यूँ लिखा ये आप जानते ही हैं
और उसके ८ दिन बाद मैं कालागढ़ वापस आ गया मैं ने अपनी ज़िन्दगी का पहला कड़वा अनुभव किया के मुझे छोड़ने तो जन सैलाब आया था लेकिन लेने सिर्फ तीन आये थे शन्नू अमर उजाला और वो किसान जिसने मेरे साथ सिक्कों की बुआई की थी
उसके बाद तो मेरा घर से निकलना फुटवाल खेलना सब दूभर हो गया सभी दोस्त उपहास उड़ाते जो मिलता लम्बाई बढ़ने के नुस्खे बताता किसी ने कहा दूध केला खाया कर किसी ने कहा लटका कर किसी ने करेले में मेथी उबाल कर (दोनों ही कितनी कडवी चीज़े है )पीने की सलाह दी वक़्त ने धीरे धीरे सारे ज़ख्म भर दिए
वक़्त पंख लगा कर उड़ता रहा और हम सब धीरे एक दुसरे से जुदा होते गए शायद सरकारी परियोजनाओ में काम करने वालों का यही नसीब भी है के .इस दिल के टुकड़े हज़ार हुए कोई यहाँ गिरा कोई ...........
और वो बच्चे जिनके अभिवावक सरकारी कर्मचारी होते हैं और उनके अभिवावकों के तवादले होते रहते वो दोस्तों के बिछड़ने (उस उम्र की दोस्ती मेरी नज़र में बहत अहम् है ) का गम झेलते रहते हैं और जीवन में कभी दोबारा नहीं मिलते
लेकिन जब मैं ने फेसबुक पर खाता खोला तो मेरे दिमाग में वही चेहरे थे मुझे वक़्त ने कितना बदल दिया वो भी बदल गए होंगे लेकिन अगर आज भी हम एक दुसरे के पास से गुज़र जाएँ तो न मैं ही पहचान पाउँगा न ही उन में से कोई मुझे पहचान पायेगा (और फिर अब मैं वो चाँद भी नहीं रहा अब तो मैं आदिल रशीद हूँ)लेकिन अगर उसवक्त के मेरे किसी दोस्त सहपाठी की तस्वीर मुझे दिखाई जाए तो मैं भी पहचान लूँगा और वो भी क्युनके हमारे जेहन पर एक तस्वीर बनी होती है जिसको हम ने आखरी बार जैसा देखा होता है वो हमारे जेहन पर वैसा ही अंकित होता है जब हम उसको दोबारा देखते है तब वो तस्वीर हट कर नयी तस्वीर उसकी जगह लेती है. इस विषय पर मेरा एक शेर है
वो जब भी ख्वाब मे आये तो रत्ती भर नहीं बदले
ख्यालों मे बसे चेहरे कभी बूढ़े नहीं होते
बचपन पर मेरी एक पोस्ट और है उसके लिए लिंक ये है जो मेरे ब्लॉग पर है
http://aadil-rasheed-hindi.blogspot.com/2010/11/kalagarh-ki-dhanterasaadil-rasheed.html
मैं जानता था के ये तस्वीर ज़रूर नज़र से गुजरेगी और जो मुझे आदिल रशीद के नाम से नहीं चाँद (जो मेरा घर का नाम है ) के नाम से पहचानते हैं वो इस तवीर को पहचान लेंगे और सारे न सही एक दो भी अगर मिल जाएँ तो भी बहुत बड़ी बात होगी
और खुदा का करम है के आज बहुत से लोग मुझे इस तस्वीर की वजह से मिल गए
मैं चेहरे को नहीं बूढी निशानी लेके फिरता था
मुझे मालूम था इस को तो तुम पहचान ही लोगे
आदिल रशीद
ऐसे ही बचपन के साथियों के लिए मेरे करम फरमा मरहूम अहमद कमाल परवाज़ी ने कहा था
जो खो गया था कभी ज़िन्दगी के मेले मे
कभी कभी उसे आंसू निकल के देखते हैं
ऐसे ही दोस्तों के लिए अहमद फ़राज़ ने कहा
ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे
हमसफ़र चाहिए हुजूम नहीं
इक मुसाफिर भी काफिला है मुझे
तो हाज़िर हैं वो तस्वीर जो अभी तक मेरी फेसबुक की प्रोफाइल में थी.
3 comments:
बहुत खूब आदिल साहब! कहानी तो दिलचस्प है ही, दोस्तों को खोजने का तरीका भी सटीक है. ऊपर से दिल को छू लेने वाला शेर '.........इक मुसाफिर भी काफिला है मुझे'
shukriya bahut shukriya
अतीत की दुनिया में ना लोग बदलते है ना हालात ,कभी सच में किसी से मिलना होता है इतने लम्बे अरसे बाद तो हर बाद अनुभव मीठा नहीं होता ..ना तो लोग उतने मासूम रह गए होते है और ना रिश्ते उतने सच्चे
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