मंजिले मक़सूद
समझ लिया था बस इक जंग जीत कर हमने
के हमने मंजिल-ऐ-मक़सूद 1 पर क़दम रक्खे 1 जो ख्वाब आँखों में पाले हुए थे मुद्दत से
वो ख्वाब पूरा हुआ आई है चमन में बहार
मिरे दिमाग में लेकिन सवाल उठते हैं
क्यूँ हक बयानी का सूली है आज भी ईनाम ?
क्यूँ लोग अपने घरों से निकालते डरते हैं ?
क्यूँ तोड़ देती दम कलियाँ खिलने से पहले ?
क्यूँ पेट ख़ाली के ख़ाली हैं खूं बहा कर भी ?
क्यूँ मोल मिटटी के अब इंतिकाम बिकता है?
क्यूँ आज बर्फ के खेतों में आग उगती है ?
अभी तो ऐसे सवालों से लड़नी है जंगें
अभी है दूर बहुत ,बहुत दूर मंजिल-ऐ-मक़सूद
मंजिले मक़सूद=जिस नन्ज़िल की इच्छा थी, हक बयानी= सच बोलना
आदिल रशीद
4 comments:
मोहतरम आदिल रशीद साहब, आदाब
आपके ब्लॉग पर अच्छा कलाम पढ़ने को मिला है...
ताजमहल, आज़ादी का तराना और दिगर कलाम ने मुतास्सिर किया.
मुबारकबाद कबूल फ़रमाएं.
shukriya apna tarruf bhi bheje
इतनी उम्दा और सच्ची नज़्म के लिये तौसीफ़ी अल्फ़ाज़ नहीं हैं मेरे पास
बेशक ये सारे सवालात आज भी मौजूद है लेकिन
बसी है दिल में मेरे इक यक़ीन की ख़ुश्बू
कभी तो फूल खिलेंगे बबूल के बन में
मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाएं
इस्मत साहिबा क्या कहूँ
लफ्जे उम्मीद पे कायम है ये दुनिया अब तक
वक़्त बदलेगा ये उम्मीद लगाये रखिये
आपके ब्लॉग पर जनाब द्विज को पढ़ा और अब मैं आपको फोलो कर रहा हूँ आपको एतराज़ तो नहीं
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