Wednesday, September 28, 2011

मुझे मालूम था इसको तो तुम पहचान ही लोगे...........



मुझे मालूम था इसको तो तुम पहचान ही लोगे...........
एक तस्वीर की कहानी...............आदिल रशीद /aadil rasheed

मेरे बहुत से फेसबुक के दोस्तों ने मुझ से बहुत बार ये कहा के आपने प्रोफाइल में  बहुत पुरानी(1986) की  B/W तस्वीर क्यूँ लगा रखी है और उसके नीचे C-824 वर्क चार्ज कालोनी कालागढ़ 1986  भी लिख रखा है
मैं ने कहा के इस के पीछे एक कहानी है (और मेरे हर शेर की एक कहानी होती है )
मेरा एक बदनाम शेर भी है
जो गुज़रती है बस वो कहता हूँ
वर्ना मेरा ग़ज़ल से क्या रिश्ता
जो भी पूछता के इसके पीछे क्या कहानी है तो मैं मुस्करा कर टाल जाता

और जियादा जिद करने पर कह देता के वक़्त आने पर बताऊंगा

बहुत से मित्र जो के मेरे बेहद करीब ( रग ए जाँ से भी करीब) हैं  वो इसकी कहानी जानते है जिनमे कुछ पुरुष मित्र है तो कुछ महिला मित्र भी है जिन्होंने ने  मेरा अनुसरण करते हुए अपनी अपनी वाल पर अपनी पुरानी तस्वीरें लगा रखी है
आज मैं इस को सब के लिए लिख रहा हूँ .

बात 1986 की है एक दिन अखबार में एक विज्ञापन देखा के एक फिल्म में कलाकारों का चयन हो रहा है २ रूपये  जी हाँ सिर्फ दो रूपये (१९८६ में २ रूपये बड़ी बात थी क्युनके उस वक्त पोस्ट कार्ड १० या १५ पैसे का था ) के डाक टिकट भेज कर फार्म मंगवा लें 
मैं ने २ रूपये के डाक टिकट भेज कर फार्म मँगा लिया फार्म भर कर भेजा तो यही तस्वीर जो मेरी फेसबुक की प्रोफाइल में है साथ में भेज दी 
तीन महीने बाद एक पोस्टकार्ड मिला आपका चयन मुख्य हीरो के रूप में हो गया है आप आ जाइये मेरी तो ख़ुशी का कोई ओर छोर न रहा एक दोस्त था प्रदीप चतुर्वेदी जिसे हम सब अमर उजाला कहते थे कोई बात पूरे कालागढ़ में फैलानी हो तो अखबार द्वारा तो वक़्त और पैसा दोनों लगते थे उसे बता दो फ्री में पूरे कालागढ़ में बात  फ़ैल जाती थी  (टी. वी उस समय हर घर मे था नहीं एक साधन था विविध भारती )बस क्या था उसे राज़ की बात बताते ही जिसे देखो वो सी-824 की तरफ भागा चला आ रहा था मुबारकबाद देने अम्मी अब्बू सबको चाय नाश्ता कराते और रुखसत करदेते.
धीरे धीरे वो दिन भी आ गया जब मुझे जाना था
एक बहुत बड़ा हुजूम(जन सैलाब) मुझे विदा करने बस अड्डे तक आया मेरा चेहरा फूलों के हारों में कही छुप गया था मैं उसको नहीं देख पा  रहा था जिसने मेरे साथ कभी पैसे बोये थे  क्युनके हम ने सुना था गेहूं बोने पर गेंहू उगते है यानि जो बोया जाए तो बही हु ब हूँ  निकलता है तो अगर पैसे बो दिए जाएँ तो पैसे ही उगेंगे
आज तो ये याद करके भी आँखें भर आती है और बहुत सी रेजगारी गालों पर गिरने लगती है (खैर जाने दो ) 

बस चली सफ़र पूरा कर के मैं वहां पहुंचा  उस दफ्तर में कुछ और भी  लड़कियां लड़के थे शायद सबको बुलाया गया था  
मुझे अन्दर बुलाया गया मैं अन्दर दाखिल हुआ सामने बैठा उन्होंने मुझे हैरत से देखा कहा ये तस्वीर आपकी है मैं ने कहा जी
उन्होंने एक दुसरे की तरफ देखा और कुछ खुसर फुसर की एक महिला जो बहुत ही सुन्दर थी बिलकुल मेरी माँ के जैसी गोरी गोरी चौड़ा माथा बड़ी बड़ी आँखें ममता का अथाह सागर और अम्मी की तरह भावुक भी क्युनके जो उसने कहा उसको वो बात कहने में बहुत तकलीफ हो रही थी उसका चेहरा उसकी  जुबां का साथ नहीं दे रहा था 
उसने बड़ी मुश्किल से कहा" देखिये हुआ यूँ के हम आपकी तस्वीर और चेहरे से धोका खा गए आपकी लम्बाई बहुत कम है 
मैं तो जैसे पहले ही भांप गया था (मेरी लम्बाई 5  फुट 1 इंच है )बस उसके कहने की प्रतीक्षा में था उनको नमस्ते की और चला आया मुझे चयन न होने का कोई दुःख नहीं था दुःख था तो ये के कितना उपहास उड़ेगा मेरा 
फिर मैं ने उसी दिन दो पोस्ट कार्ड लिखे एक घर पर और एक अमर उजाला को अब अमर उजाला को क्यूँ लिखा ये आप जानते ही हैं 

 और उसके ८ दिन बाद मैं कालागढ़ वापस आ गया मैं ने अपनी ज़िन्दगी का पहला कड़वा अनुभव किया के मुझे छोड़ने तो जन सैलाब आया था लेकिन लेने सिर्फ तीन आये थे शन्नू अमर उजाला और वो किसान जिसने मेरे साथ सिक्कों की बुआई की थी
 उसके बाद तो मेरा घर से निकलना फुटवाल खेलना सब दूभर हो गया सभी दोस्त उपहास उड़ाते जो मिलता लम्बाई बढ़ने के नुस्खे बताता किसी ने कहा दूध केला खाया कर किसी ने कहा लटका कर किसी ने करेले में मेथी उबाल कर (दोनों ही कितनी कडवी चीज़े है )पीने की सलाह दी वक़्त ने धीरे धीरे सारे ज़ख्म भर दिए 
वक़्त पंख लगा कर उड़ता रहा और हम सब धीरे एक दुसरे से जुदा होते गए शायद सरकारी परियोजनाओ में काम करने वालों का यही नसीब भी है के .इस दिल के टुकड़े हज़ार हुए कोई यहाँ गिरा कोई ...........
और वो बच्चे जिनके अभिवावक सरकारी कर्मचारी होते हैं और उनके अभिवावकों के तवादले होते रहते वो दोस्तों के बिछड़ने (उस उम्र की दोस्ती मेरी नज़र में बहत अहम् है  ) का गम झेलते रहते हैं और जीवन में कभी दोबारा नहीं मिलते 

लेकिन जब मैं ने फेसबुक पर खाता खोला तो मेरे दिमाग में वही चेहरे थे मुझे वक़्त ने कितना बदल दिया वो भी बदल गए होंगे लेकिन अगर आज भी  हम एक दुसरे के पास से गुज़र जाएँ तो न मैं ही पहचान पाउँगा न ही उन में से कोई मुझे पहचान पायेगा (और फिर अब मैं वो चाँद भी नहीं रहा अब तो मैं आदिल रशीद हूँ)लेकिन अगर उसवक्त के मेरे किसी दोस्त सहपाठी की तस्वीर मुझे दिखाई जाए तो मैं भी पहचान लूँगा और वो भी क्युनके हमारे जेहन पर एक तस्वीर बनी होती है जिसको हम ने आखरी बार जैसा देखा होता है वो हमारे जेहन पर वैसा ही अंकित होता है जब हम उसको दोबारा देखते है तब वो तस्वीर हट कर नयी तस्वीर उसकी जगह लेती है. इस विषय पर मेरा एक शेर है 
वो जब भी ख्वाब मे आये तो रत्ती भर नहीं बदले 
ख्यालों मे बसे चेहरे कभी बूढ़े नहीं होते 
बचपन पर मेरी एक पोस्ट और है उसके लिए लिंक ये है जो मेरे ब्लॉग पर है 
http://aadil-rasheed-hindi.blogspot.com/2010/11/kalagarh-ki-dhanterasaadil-rasheed.html

मैं जानता था के ये तस्वीर ज़रूर नज़र से गुजरेगी और जो मुझे आदिल रशीद के नाम से नहीं चाँद (जो मेरा  घर का नाम है ) के नाम से पहचानते हैं वो इस तवीर को पहचान लेंगे और सारे न सही एक दो भी अगर मिल जाएँ तो भी बहुत बड़ी बात होगी 
और खुदा का करम है के आज बहुत से लोग मुझे इस तस्वीर की वजह से मिल गए 
मैं चेहरे को नहीं बूढी निशानी लेके फिरता था 
मुझे मालूम था इस को तो तुम पहचान ही लोगे
 आदिल रशीद 

ऐसे ही बचपन के साथियों के लिए मेरे करम फरमा मरहूम अहमद कमाल परवाज़ी ने  कहा था
जो खो गया था कभी ज़िन्दगी के मेले मे
कभी कभी उसे आंसू निकल के देखते हैं

ऐसे ही दोस्तों के लिए अहमद फ़राज़ ने कहा  
ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे 
तू बहुत देर से मिला है मुझे 
हमसफ़र चाहिए हुजूम नहीं
इक मुसाफिर भी काफिला है मुझे

तो हाज़िर हैं वो तस्वीर जो अभी तक मेरी फेसबुक की प्रोफाइल में थी.



Saturday, September 17, 2011

ek khas sher... aadil rasheed

ये शेर सिर्फ एक शेर नहीं है. ये एक वादा है जो मैं ने अपनी शरीके हयात (पत्नि) से २ जून १९९९४ को किया था(यही हमारी शादी की तारिख है )
यूँ तो ये शेर मैं ने उस से बहुत पहले कहा था १९८९ में  मगर मैं ने ये शेर ना कहीं पढ़ा और ना ही कहीं छपवाया क्यूँ के मैं ने तय कर रखा था अपने दिल में के ये शेर मैं अपनी पत्नि को तोहफे में दूंगा .एक भावुक शायर को इस से अच्छा तोहफा कुछ समझ में नहीं आया क्यूँ के सोना चांदी तो सब देते हैं लेकिन एक उम्र के बाद उसको पहनता कौन है और ये भी है के आँख में आंसू न आने देने का वादा भी करना सितारों से मांग भरने से कहीं जियादा है किसी के वास्ते ताजमहल बना देने से भी कहीं जियादा है क्यूँ के औरत तो सिर्फ प्यार चाहती है सिर्फ प्यार उसको धन का लालच नहीं होता.
अब समझदार लोगों को ये बताने की क्या ज़रुरत हैं के एक औरत तो मुमकिन है के पेट में कोई बात रोक ले मगर एक शायर कवि  अगर इतने साल तक एक शेर दुनिया को सिर्फ इस लिए नहीं सुनाता अपने पेट में रोक कर रखता है के उस शेर को उसे अपनी शरीके हयात को तोहफे में देना है तो उस कवि  उस शायर ने पेट में  कितना दर्द कितनी तकलीफ सही होगी अंदाज़ा कीजिये.(काश उस दर्द का अंदाज़ा मेरी शरीके हयात भी कभी कर सके )
वो ही शेर हाज़िरे खिदमत है.........
आदिल रशीद  

Thursday, September 15, 2011

साहित्य मे चोरी/aadil rasheed

साहित्य मे चोरी ( भाग-1) आदिल रशीद 

कभी -कभी एक ही विषय पर दो कवि एक ही तरह से कहते हैं, उस को चोरी कहा जाए या इत्तिफाक ये एक अहम् सवाल है  आज कल तो ज़रा सा ख्याल टकरा जाने को लोग चोरी कह देते हैं और जिस व्यक्ति  के पास जितने अधिक शब्द हैं वो उतना ही बड़ा लेख लिख मारता है और स्वयंको बहुत बड़ा बुद्धिजीवी साबित करने की कोशिश मे लग जाता है  और बात को बहस का रूप दे देता है जब  के सत्य ये होता है के वो कवि या शायर चोर नहीं होता .
जब भी  कोइ साहित्य मे चोरी की बात करता है तो मैं कहता हूँ ये तवारुदहै और ये किसी के भी साथ हो सकता है खास तौर से नए शायर के साथ जिसने बहुत अधिक साहित्य न पढ़ा हो इसीलिए मैं कहता हूँ के कोई भी नया शेर कहने के बाद ऐसे व्यक्ति को जरूर सुनाना चाहिए जिस ने  बहुत सा साहित्य पढ़ा भी हो और उसे याद भी हो नहीं तो आपके तवारुद को दुनिया चोरी कहेगी
 तवारुद शब्द अरबी का है पुर्लिंग है इसके अर्थ  होते हैं एक ही चीज़ का दो जगह उतरना / एक ही ख्याल का दो अलग अलग कवियों शायरों के यहाँ कहा जाना   
तवारुद के हवाले से जो २  दोहे मैं उदाहरण के तौर पर रखता हूँ वो कबीर और रहीम के हैं  जो अपने अपने काल के महान कवि है 

वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारण, साधुन धरा शरीर।-कबीर(1440-1518

तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान।-रहीम(1556-1627.

अब आते हैं मुख्य बात पर ये चोरी है या इत्तफाक:
तो उस ज़माने मे बात का किसी दुसरे के पास पहुंचना नामुमकिन सा था साधन नहीं थे T.V. net फोन अखबार उस समय एक बात दुसरे तक पहुँचने का कोई माध्यम नहीं था और अगर पहुँच भी जाए तो उसमे एक लम्बा और बहुत लम्बा समय लग जाता था इस लिए कबीर और रहीम के दोहों को  तावारुद का नाम दिया जायेगा और आज अगर ऐसा कोई वाकया  होता है तो इसको चोरी और सीना जोरी ही कहा जायेगा.क्युनके आज साधन बहुत हैं 
कवि ने चोरी की है या उस पर तवारुद हुआ है इस बात को उस कवि से बेहतर कोई नहीं जानता जिस ने ये किया होता है क्युनके आज हर बात नेट पर और पुस्तकों मे उपलव्ध है,और कविसम्मलेन और मुशायरे भी अधिक होते हैं समाचार पत्रों में पत्रिकाओ में रचना यहाँ से वहाँ पहुँच जाती है 

( लोग चोरी किस किस तरह करते हैं ये मैं अगले  लेखों  में लिखूंगा )


कविता लिखना और कविमना होना और कविमना होने का ढोंग करना अलग अलग बाते हैं  
कविमना तो वह व्यक्ति भी है जो कविता लिखना नहीं जानता ग़ालिब शराबी थे जुआरी थे वेश्याओं के यहाँ भी उनका आना जाना था उन पर अंग्रेजों के लिए मुखबरी के आरोप भी लगे हैं इन सब के बावजूद 
 उर्दू  शायरी मे ग़ालिब बाबा ए सुखन (कविता के पितामाह) हैं और रहेंगे. तो क्या वो कविमना नहीं थे
फिराक साहेब के बहुत से किस्से "मशहूर" हैं तो इससे उनके  कविमना होने पर उनके चिंतन पर क्या फर्क पड़ता है

एक बात और कहना चाहूँगा के सवाल तो हमेशा छोटा ही होता है जवाब हमेशा सवाल की लम्बाई (उसमे प्रयोग शब्दों की गिनती) से अधिक होता है.
Technicalities को सीखे बग़ैर तो कोई रचना हो ही नहीं सकती जैसे हम बीमार होने पर  झोला  छाप  डॉक्टर या BUMS के पास नहीं जाते  कम से कम उस रोग के माहिर या उस अंग  के माहिर के पास जाते हैं तो ये कहना ग़लत है के बिद्या से क्या.  लेख लिखना भी एक बिद्या है और उसके  अपने अलग फायदे हैं.

 इस्तिफादा और चर्बा(चोरी)
१ . अगर दोनों रचनाकारों के शेर का विषय वही है परन्तु शब्द दुसरे है तो इस्तिफादा कहलाता है यानि प्रेरणा.
२. अगर दोनों रचनाकरों के विषय भी वही है शब्द भी लगभग -लगभग वही हैं तो फिर तो वो चोरी ही हुई
३. अब ये कवि के कविमना होने पर है के वो कितना ईमानदार है और कितनी ईमानदारी से सत्य स्वीकार करता है कहीं वो  बात को छुपा तो नहीं रहा के साहेब मैं ने तो कभी ये शेर सुना ही नहीं.तो मैं कैसे चोर हो सकता हूँ.
३. साहित्य में ईमानदार (कविमना)होना पहली शर्त है.
4 . हम में विद्वान बनने  की होड़ होनी चाहिए किन्तु खुद को विद्वान या बुद्धिजीवी साबित करने की होड़ नहीं होनी चाहिए  
दुनिया में अभी ऐसी कोई तकनीक विकसित नहीं हुई जो झूठ को १०० % पकड़ सके. ये कवि के कविमना होने पर यानी उसकी इमानदारी पर ही है और उसकी इमानदारी पर ही रहेगा.
 मैं  यहाँ प्रेरणा और चोरी दोनों के उदहारण पेश कर रहा हूँ .
इस्तिफादा
मुझे हफीज फ़रिश्ता कहेगी जब दुनिया 
मेरा ज़मीर मुझे संगसार कर देगा (हफीज मेरठी)

खुद से अब रोज़ जंग होनी है
कह दिया उसने आइना मुझको (आदिल रशीद)

यहाँ दोनों ही  शेर  एक  ही  विषय  पर  हैं मगर दोनों  के शब्द अलग अलग हैं ये  प्रेरणा है  यहाँ हफीज मेरठी के शेर का  बिषय है के दुनिया मुझे फ़रिश्ता (कविमना ) कहेगी तो मेरा ज़मीर मुझे पत्थर मारेगा  के तू ऐसा तो है नहीं और दुनिया तुझे देवता(कविमना)  कहती है .
मेरे शेर में भी यही बात है  इस शेर में कहा गया है के उस ने  मुझे आइना यानि फ़रिश्ता ईमानदार (कविमना) कह दिया परन्तु मैं वैसा तो हूँ नहीं अब  इसी बात को लेकर मेरी खुद से जंग होनी है के या तो तू कविमना हो जा या फिर ज़माने को बता दे के तू पाखंडी है धोकेबाज़ है  
अगर मैं न बताऊँ तो कुछ लोग कभी नहीं जान पाएंगे के मैं ने इस शेर की प्रेरणा कहाँ से ली है
चर्बा (CHORI)
कटी पतंग का रुख मेरे घर की जानिब था 
उसे भी लूट लिया लम्बे हाथ वालों ने (आजर सियान्वी)

कटी पतंग मेरी छत पे किस तरह गिरती 
हमारे घर के बगल में में मकान ऊंचे थे (नामालूम, नाम लिखना उचित नहीं)


इसे हम चर्बा यानि चोरी क्यूँ कहेंगे इसलिए कहेंगे क्यूँ के यहाँ कटी पतंग भी है घर या छत भी है लम्बे मकान या लम्बे हाथ भी है और अर्थ भी वही है के कटी पतंग मुझे नहीं मिलेगी कारन भी लगभग लगभग वही है.



हमें ईमानदार होना चाहिए किसी दुसरे की अच्छी बात को अपने नाम से नहीं लिखना चाहिए सत्य को स्वीकार करना चाहिए क्यूँ के साहित्य में भी और जीवन में भी मौलिकता यानि सत्य  बहुत बड़ी चीज़ है
महान शायर अल्लामा इकबाल को यूँ भी महान कहा जाता है के उन्होंने हमेशा खुले मन से स्वीकार किया और खुद लिखा के उनकी मशहूर रचना "लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी " एक अंग्रेजी कविता का अनुवाद है अगर वो ज़माने को उस समय न बताते तो आज के इस नेट युग में सबको पता चल जाता के ये PREY OF CHILD से प्रेरित है उस स्तिथि मे उन पर चोरी का इलज़ाम लगता लेकिन उन्होंने उसी समय जब नेट का  विचार भी नहीं था अब से ५० साल पहले खुद लिख कर के ये एक अंग्रेजी कविता से प्रेरित है उसका अनुवाद है अपने को महान बना लिया.

बहुत से लोगो ने उर्दू हिंदी साहित्य में फारसी से कलाम चुराया है जो आज सब लोगों को पता चल गया है उस में बहुत से बड़े नाम हैं.चोरी औरझूठ ऐसी चीज़े है जो कभी छुपती नहीं हैं. इसी लिए कहा जाता है सत्यमेव  जयते  
अंत  में  हिंदी  दिवस  की  हार्दिक बधाई   
जय  हिंद  जय  भारत 
आदिल रशीद  


Monday, September 12, 2011

फैज़ अहमद फैज़ कि ज़मीन में एक तरही ग़ज़ल/faiz ahmad faiz ki zameen me ek tarahi ghazal/aadil rasheed


फैज़ अहमद  फैज़  कि  ज़मीन  में  एक  तरही ग़ज़ल 

जो  खून  ए  दिल  में  डुबो  ली  हैं  उँगलियाँ  मैं  ने  
लिखी  है  तब  कहीं  ज़ुल्मों  की  दास्ताँ  मैं  ने  

वहीँ  वहीँ  पे सजी  पाई  कहकशां  मैं  ने  
तुम्हारा  नाम  लिया  है  जहाँ  जहाँ  मैं  ने  

कहीं  मिले  ही  नहीं  फिर  वो  पुर  सुकुं  लम्हे  
उन्हें  तलाश  किया  है  कहाँ  कहाँ  मैं  ने  

मुझे  ये  दार ओ रसन उस का ही तो तोहफा है 
रखीं थी  नब्ज़  ए  ज़माना  पे  उँगलियाँ  मैं  ने  

हवा  के  साथ  में  कुछ  फिक्रें  भी  चली  आईं
ज़रा  सी  जेहन  की  खोली  जो  खिड़कियाँ  मैं  ने  

मिरा  वजूद  बिखर  जायेगा  पता  था  मुझे 
मगर  गुरूर  की  कर  दी   हैं  धज्जियाँ  मैं  ने  

ग़ज़ल  का  लहजा  मिरा  यूँ  भी  तल्ख़  है  आदिल 
पढ़ी  है  हजरते साहिर  की  "तल्खियाँ " मैं  ने 

दार ओ रसन= फांसी का फंदा,सलीब,फांसी का तख्ता
कहकशां= आकाश गंगा ,glaxy 
तल्ख़= कड़वा 
 तल्खियाँ साहिर लुधियानवी के ग़ज़ल संग्रह का नाम है

आदिल रशीद  

فیض احمد فیضؔ کی زمین میں ایک طرحی غزل

جو خون دل میں ڈبولی ہیں انگلیاں میں نے
لکھی ہے تب کہیں ظلموں کی داستاں میں نے

وہیں وہیں پہ سجی پائی کہکشاں میں نے
تمہارا نام لیا ہے جہاں جہاں میں نے

کہیں ملے ہی نہیں پھر وہ پر سکوں لمحے
انہیں تلاش کیا ہے کہاں کہاں میں نے

مجھے یہ دار و رسن اس کا ہی تو تحفہ ہے
رکھی تھیں نبض زمانہ پہ انگلیاں میں نے

ہوا کے ساتھ میں کچھ فکریں بھی چلی آئیں
ذرا سی ذہن کی کھولیں جو کھڑکیاں میں نے

مرا وجود بکھر جائے گا پتہ تھا مجھے
مگر غرور کی کر دی ہیں دھجیاں میں نے

غزل کا لہجہ مرا یوں بھی تلخ ہے عادلؔ 
پڑھی ہے حضرت ساحرؔ کی’’ تلخیاں‘‘ میں نے 

عادل رشید

faiz ahmad faiz ki zameen me ek tarahi ghazal

jo khoon e dil me dubo li hain ungliyan main ne 
likhi hai tab kahin zulmon ki dastan main ne 

wahin wahin pe saji payi kehkashan main ne 
tumhara nam liya hai jahan jahan main ne 

kahin mile hi nahin phir wo pur sukun lamhe 
unhen talash kiya hai kahan kahan main ne 

mujhe ye dar o rasan is baat ka hi to tohfa hai
rakhi thi nabz e zamana pe ungliyan main ne 

hawa ke saath me kuchh fikren bhi chali aayin
zara si zehn ki kholi jo khidkiyan main ne 

mira wajood bikhar jayega pata tha mujhe
magar guroor ki kar di hain dhajjiyan main ne 

ghazal ka lehja mira yun bhi talkh ha aadil
padhi hai hazrat e SAHIR ki "talkhiyan" main ne 
aadil rasheed


Friday, September 9, 2011

रज़ा महबूब की हम जैसे कुछ पागल समझते हैं /आदिल रशीद / aadil rasheed

रज़ा = मर्जी,इच्छा,   पीर =सोमवार 
रज़ा महबूब की हम जैसे कुछ पागल समझते हैं 
अगर वो पीर को मंगल कहे मंगल समझते है

जो  तुझ  से  दूर  हो  वो  जिंदगी  भी  जिंदगी  कब  है  
जो तेरे साथ में गुज़रे उसी को पल समझते हैं 


किसी ने यूँ ही वादा कर लिया था पीर मंगल का 
उसी दिन से हर इक दिन पीर और मंगल समझते हैं

उन्हें  तो हुक्म की तामील हर हालत मे करनी है  
कहाँ कितना बरसना है ये क्या बादल समझते हैं 


ये जनता सब समझती है के उनकी खूबियाँ क्या हैं 
मगर वो हैं के सब को अक्ल से पैदल समझते हैं
  
कहाँ हैं पहले जैसी खासियत के लोग दुनिया मे
जो नकली सांप हैं  कीकर को भी संदल समझते हैं
राजा = मर्जी,इच्छा, पीर =सोमवार  

 

raza mehboob ki ham jaise kuchh pagal samajhte hain
agar wo peer ko mangal kahen mangal samajhte hain

jo tujh se door ho wo zindagi bhi zindagi kab hai
jo tere saath me guzre usi ko pal samajhte hain

kisi ne yun hi wada kar liya tha peer mangal ka
usi din se har ik din peer aur mangal samajhte hain

unhe to hukm ki tameel har halat me karni hai
kahan kitna barasna hai ye kya baadal samjhte hain

ye janta sab samajhti hai ke unki khoobiyan kya hain
magar wo hain ke sab ko aqal se paidal samajhte hain

kahan hain pehle jaisi khasiyat ke log duniya me
jo naklee saanp hain keekar ko bhi sandal samajhte hain

१२ मई 1994




Thursday, September 8, 2011

भरम उसकी शराफत का न खुल जाए वो डरता है /aadil rasheed

भरम  उसकी  शराफत  का  न  खुल  जाए  वो  डरता  है
सहारा  ले  के  गैरों  का  वो  मुझ  पर  वार  करता  है

समझ  में  आ  सकेगा   किस  तरह  ये  मसअला यारो 
जो  शब्  का  क़त्ल  होता   है  तो  इक  सूरज  उभरता  है


कोई  तद्फीन  हो  घर  में , किसी  अपने की  शादी  हो
ये  मत  पूछो  वो  दिन  परदेस  में  कैसे  गुज़रता  है

मिरे  अशआर  कुछ  लोगों  को  खुद  पर  तन्ज़  लगते  हैं 
जहाँ  पर  गड्ढा  होता  है  वहीँ  पर  पानी  मरता  है

तद्फीन = मुर्दा दफ्न करना, अंतिम क्रिया
अशआर = शेर का बहुवचन 
शब् = रात 

तन्ज़ =व्यंग   

bharam uski sharafat ka na khul jaaye wo darta hai
sahara le ke gairon ka wo mujh par waar karta hai

samajh men aa sakega kis tarah ye masala yaaro
jo shab ka qatl hota hai to ik sooraj ubharta hai


koi tadfeen ho ghar men, kisi apne ki shaadi ho
ye mat poochho wo din pardes men kaise guzarta hai

mire ashaar kuchh logon ko khud par tanz lagte hain
jahan par gaddha hota hai wahin par pani marta hai






Monday, September 5, 2011

जो बन संवर के वो एक माहरू निकलता है /आदिल रशीद /aadil rasheed

जो बन संवर के वो एक माहरू निकलता है
 

तो हर ज़बान से  बस अल्लाह हू निकलता है
 

ये चाँद रात ही दीदार का वसीला है

बरोजे ईद ही वो खूबरू निकलता है


हलाल रिज्क का मतलब किसान से पूछो

पसीना बन के बदन से लहू निकलता है


ज़मीन और मुक़द्दर की एक है फितरत

के जो भी बोया वही  हूबहू  निकलता है



तेरे बग़ैर गुलिस्ताँ को क्या हुआ आदिल
जो गुल निकलता है बे रंगों बू  निकलता है 

आदिल रशीद 






माहरू= सुन्दर चाँद जैसे चेहरे वाला
अल्लाह हू = हे भगवान् 

रिज्क= रोजी,रोटी   

आदिल रशीद